Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राजा की रानी

पहले कह चुका हूँ कि यह मनुष्य बात कहना खूब जानता था। इस दफा उसने बात कहना शुरू किया! ऑंखों की पुतलियाँ और भौहें, कभी सिकोड़कर और कभी फैलाकर, कभी बुझाकर और कभी प्रज्ज्वलित करके उसने पक्षी के रोने से शुरू करके कान पर ठण्डी उसास के छोड़ने पर्यन्त की ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्याख्या जुटाई कि दिन के समय, इतने लोगों के बीच बैठे हुए भी मेरे सिर के बाल तक काँटों की तरह खड़े हो गये। कल सुबह की तरह आज भी प्यारी गुप-चुप कब सरक कर समीप आ बैठी, इस पर मेरा ध्याहन ही नहीं गया। एकाएक एक उसास के शब्द से गर्दन घुमाकर मैंने देखा कि वह ठीक मेरी पीठ के पीछे बैठी हुई निर्निमेष दृष्टि से बोलने वाले के मुँह की ओर देख रही है और उसके दोनों चिकने उजले गालों पर झड़े हुए अश्रुओं की दो धाराएँ सूखकर फूट उठी हैं। कब और किसलिए वह ऑंखों का जल बह निकला था, शायद वह बिल्कुमल ही जान नहीं सकी; नहीं तो उन्हें पोंछ डालती। किन्तु, उसी अश्रु-कलुषित तल्लीन मुख का पल-भर का दृष्टिपात ही मेरे हृदय में एक अग्नि की रेखा अंकित कर गया। बात समाप्त होते ही वह उठकर खड़ी हो गयी और कुमारजी को सलाम करके, अनुमति माँगकर, धीरे-धीरे बाहर चली गयी।

आज सुबह ही मेरे बिदा होने की बात थी। परन्तु, शरीर स्वस्थ नहीं था, इसलिए कुमारजी का अनुरोध स्वीकार करके मैं उस समय, जाना स्थगित करके, अपने तम्बू में वापस लौट आया। इतने दिनों के बाद आज प्यारी के आचरण में पहले-पहल मैंने दूसरा भाव देखा। इतने दिन उसने परिहास किया है, व्यंग किया है, और कलह का आभास तक भी उसके दोनों नेत्रों की दृष्टि में कुछ दिन घनीभूत हो गया है- यह सब मैंने अनुभव किया है। परन्तु, इस तरह की उदासीनता पहले कभी नहीं देखी। फिर भी, व्यथित होने के बदले मैं खुश ही हुआ। क्यों, सो जानता हूँ। यद्यपि युवती स्त्रियों के मन की गतिविधि को लेकर माथापच्ची करना मेरा पेशा नहीं है, और न इसके पहले यह काम मैंने कभी किया ही है, पर मेरे मन के भीतर जो बहुत जन्मों की अखण्ड धारावाहिकता छिपी हुई मौजूद है, उसके बहुदर्शन की अभिज्ञता से रमणी-हृदय का गूढ तात्पर्य स्पष्ट प्रतिभासित हो उठा। वह उसे अपना अपमान समझकर क्षुब्ध नहीं हुआ वरन् उसे प्रणय अभिमान समझकर पुलकित हो उठा। शायद, इसी छिपी हुई धारावाहिकता के गुप्त इशारे से मैंने अपनी श्मशान यात्रा के लिए यहाँ तक के इतिहास में, इस बात का उल्लेख तक नहीं किया कि कल-रात को मुझे श्मशान से लौटा लाने के लिए आदमी भेजे थे और वह स्वयं भी बात पूरी होते ही उसी तरह गुप-चुप बाहर चली गयी थी। इसीलिए है यह अभिमान! कल रात को लौटकर उसे मुलाकात करके मैंने यह नहीं कहा कि वहाँ क्या हुआ था। उससे जिस बात को अकेले बैठकर सुनने का सबसे पहले अधिकार था उसी को आज वह सबसे पीछे बैठकर मानो दैवात् ही सुन सकी है। परन्तु, अभिमान भी इतना मीठा होता है! जीवन में उसके स्वाद को उस दिन सबसे पहले उपलब्ध करके मैं बच्चे की तरह एकान्त में बैठ गया और लगातार चख-चखकर उसका उपभोग करने लगा।

आज दोपहर को मैं सो जाना चाहता था। बिस्तर पर लेटे-लेटे बीच-बीच में तन्द्रा भी आने लगी; परन्तु रतन के आने की आशा बार-बार हिला-हिलाकर उसे तोड़ देने लगी। इस तरह समय तो निकल गया परन्तु रतन नहीं आया! वह आएगा अवश्य, यह विश्वास मेरे दिल में ऐसा दृढ़ हो रहा था कि, जब बिस्तर छोड़कर बाहर आकर मैंने देखा कि सूर्य पश्चिम की ओर ढल पड़ा है, तब मुझे मन ही मन यह निश्चय हो गया कि जब मैं तन्द्रा में पड़ा हुआ था तब रतन, मेरे यहाँ आया है और मुझे निद्रित समझकर लौट गया है। मूर्ख! एक दफे पुकार ही लेता तो क्या हो जाता! दोपहर का निर्जन समय यों ही निरर्थक चला गया, यह सोचकर मैं क्रुद्ध हो उठा; परन्तु संध्याए के बाद वह फिर आएगा और एक छोटा-सा अनुरोध- नहीं तो लिखा हुआ एक पुर्जा- जो कुछ भी हो, गुप-चुप हाथ में थमा जायेगा; इसमें मुझे जरा भी संशय नहीं था; किन्तु यह समय कटे किस तरह? सामने की ओर देखते ही कुछ दूर पर विशाल जल-राशि एकदम मेरी ऑंखों के ऊपर झक्-झक् कर उठी। वह किसी विस्मृत जमींदार का विशाल यश था। वह तालाब करीब आधा कोस विस्तृत था। उत्तर की ओर से वह खिसक कर पुर गया था और घने जंगल से ढँक गया था। गाँव के बाहर होने के कारण गाँव की स्त्रियाँ उसके जल का उपयोग नहीं कर पाती थीं। बातों ही बातों में सुना था कि यह तालाब कितना पुराना है और किसने बनवाया था, इसका पता किसी को नहीं है। एक पुराना टूटा घाट था, उसी के एकान्त कोने में जाकर मैं बैठ गया। एक समय इसके चारों ओर बढ़ता हुआ गाँव था जो न जाने कब हैजे और महामारी के प्रकोप से ऊजाड़ होकर, फिर अपने वर्तमान स्थान में, सरक आया है। छोड़े हुए मकानों के बहुत-से निशान चारों ओर विद्यमान हैं। डूबते हुए सूर्य की तिरछी किरणों की छटने धीरे-धीरे झुककर तालाब के काले पानी में सोना मथ दिया, मैं एकटक होकर देखता रहा।

इसके बाद धीरे-धीरे सूर्य डूब गया। तालाब का काला पानी और भी काला हो गया। पास के ही जंगल में से दो-एक प्यासे सियार बाहर निकल कर डरते-डरते पानी पीकर चले गये। वहाँ से मेरे उठने का समय हो गया है- जिस समय को काटने के लिए मैं वहाँ गया था वह कट गया है, यह सब अनुभव करके भी मैं वहाँ से उठ न सका- मानों उस टूटे घाट ने मुझे जबरन बिठा रखा!

खयाल आया कि जहाँ पैर रखकर मैं बैठा हुआ हूँ वहीं पर पैर रखकर न जाने कितने आदमी कितनी दफा आए हैं, गये हैं। इसी घाट पर वे स्नान करते, मुँह धोते, कपड़े छाँटते और जल भरते थे। इस समय वे कहाँ के किस जलाशय में ये समस्त नित्य-कर्म पूर्ण करते होंगे? यह गाँव जब जीवित था तब निश्चय से वे लोग इस समय यहाँ आकर बैठते थे। कितने ही गान गाकर और कितनी ही बातें करके दिन-भर की थकावट दूर करते थे। इसके बाद अकस्मात् एक दिन जब महाकाल महामारी का रूप धारण करके सारे गाँव को नोच ले गया तब न जाने कितने मरणोन्मुख व्यक्ति प्यास के मारे यहाँ दौड़े आए हैं और इसी घाट के ऊपर अपना अन्तिम श्वास छोड़कर उसके साथ चले गये हैं। शायद उनकी पिपासातुर आत्मा आज भी यहीं पर चक्कर काटती फिरती होगी। यह भी कौन जोर देकर कह सकता है कि जो ऑंखों से नहीं दिखाई देता वह है ही नहीं? आज सुबह ही उस वृद्ध ने कहा था, “बाबूजी, मन में यह कभी मत सोचना कि मृत्यु के उपरान्त कुछ शेष नहीं रहता- असहाय प्रेतात्माएँ हमारे ही समान सुख-दु:ख, क्षुधा-तृषा लेकर विचरण नहीं करतीं।” इतना कहकर उसने वीर विक्रमाजीत की कथा, और न जाने कितनी ही तान्त्रिक साधु-सन्यासियों की कहानियाँ विस्तार से कह सुनाई थीं। और कहा था कि “यह भी मत सोचना कि समय और सुयोग मिलने पर वे दिखाई नहीं देती हैं या बात नहीं कर सकती हैं, अथवा नहीं करती हैं। तुम्हें उस स्थान पर और कभी जाने के लिए मैं नहीं कहता, परन्तु जो लोग यह काम कर सकते हैं उनके समस्त दु:ख किसी भी दिन सार्थक नहीं होते, इस बात पर स्वप्न में भी कभी अविश्वास मत करना।”

   0
0 Comments